मद्धम सी रोशनी
तीव्र हुई धड़कन
संभाले ना संभला
फिर सिहर उठा मन !
पग -पग जैसे कांटे बिछे
कुछ अलग ही बिरहा दिखे
इसी बिरहा की हुई जैसे जलन
संभाले ना संभला
फिर सिहर उठा मन !
रात्रि का एक पहर
कुछ ढा जाता है कहर
सुबह की हो रोशनी
य़ा तपती हो दोपहर
ये कैसी लगी है अगन
संभाले ना संभला
फिर सिहर उठा मन !
किस बोझ का जंजाल ये
कैसा मेरा हाल ये
उलझता ही जा रहा
जीवन का सवाल ये
ये किस दिशा वायु का चलन
संभाले ना संभला
फिर सिहर उठा मन !
हो कुछ ऐसा अगर
कोई जादू की परी आये
य़ा कुछ हो ऐसा अगर
किसी की दुआ ही लग जाये
कुछ कर्मो खुदा हो
ताकत जो आ जाये बन
संभाले संभल जाये
फिर ना सिहर उठे मन !
संभाले संभल जाये
फिर ना सिहर उठे मन !!
Pic credit : Google
बहुत अच्छी कविता .
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Shukriya mam
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Fabulous post
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Thanks alot !
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Please read my first post
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Yup for sure dear. Glad to connect with you !
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बहुत खूब
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Dhnyawad apka !
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Nice
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Thanks ji
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